Sunday 12 March 2017

बुज़ुर्गों के कमरे से होता हुआ
सीढ़ियों से गुज़र के ,
दबे पाँव छत पे चला आया था मैं ,
मैं आया था  तुमको जगाने
चलो भाग जायें ,
अंधेरा है और सारा घर सो रहा है,
अभी वक़्त है
सुबह की पहली गाड़ी का वक़्त हो रहा है !!
अभी पिछले स्टेशन से छूटी नहीं है !
वहाँ से जो छूटेगी तो गार्ड इक लम्बी सी कूक देगा !!
इसी मुँह अंधेरे में गाँव के "टी-टी"से बचते बचाते ,
दोशालों की बुकल में चेहरे छुपाये
निकल जायेंगे हम
मगर तुम
बड़ी मीठी सी नींद में सो रही थीं,दबी सी
हँसी थी लबों के किनारे पे महकी हुई ,
गले पे इक उधड़ा हुआ ताँगा कुर्ती से निकला हुआ,
साँस छू छू के बस कँपकपाये चला जा रहा था ,
तर्बे साँसों की बजती हुई हल्की हल्की,
हवा जैसे सन्तूर के तार पर मींढ लेती हुई,
बहुत देर तक मैं सुनता रहा
बहुत देर तक अपने होंठों को आँखों पर रख के
तुम्हारे किसी ख़्वाब को प्यार करता रहा मैं,
नहीं जागीं तुम
और मेरी जगाने की हिम्मत नहीं हो सकी लौट आया !!
सीढ़ियों से उतर के बुज़ुर्गों के कमरे से होता हुआ
मुझे क्या पता था कि मामू के घर से उसी रोज़ ,
वह तुमको ले जायेंगे
तुम्हें छोड़कर
ज़िन्दगी इक अलग मोड़ मुड़ जायेगी !!

गुलज़ार

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