अमृता प्रीतम उत्कृष्ट लेखिका पण त्याहून अधिक एक हळव्या मनाची स्त्री स्वप्न बघणारी आणि ते तसेच जगून दाखवणारी. स्त्री म्हणून तिच्यात असणाऱ्या प्रेम, ममता, जिव्हाळा आपल्यावर जीवापाड प्रेम करणाऱ्या प्रियकराची नुसतीच मैत्रीण म्हणून किंवा तिच्या मनात वसलेल्या पण कधीही तिचा न झालेल्या प्रियकराची प्रेयसी म्हणून या सगळ्या उत्कट भावनांतून अनुभवलेल्या जीवन घटना आणि त्यातून निर्माण झालेली हि संवेदनशील कवियित्री. तिचे सारेच रूप मला फार आकर्षित करतात अन प्रभावितही. आज तिच्या जन्मदिनी तिला आदरांजली म्हणून तिच्या मला अतिशय आवडणाऱ्या या दोन कविता.
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
मैं- एक निराकार मैं थी
यह मैं का संकल्प था, जो पानी का रुह बना
और तू का संकल्प था, जो आग की तरह नुमायां हुआ
और आग का जलवा पानी पर चलने लगा
पर वह पुरा-ऐतिहासिक समय की बात है .....
यह मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उस ने तू का दरिया पी लिया
यह मैं की मिट्टी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
यह मैं की माटी की गन्ध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला-सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया ।
यह तेरे और मेरे मांस की सुगन्ध थी -
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी ।
संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है ......
अमृता प्रीतम